तुलसीदास की महत्वपूर्ण पंक्तियां Tulsidas ki Panktiya, tulsi ki uktiya UP TGT PGT HINDI 2022-23

तुलसीदास की महत्वपूर्ण पंक्तियां Tulsidas ki Panktiya, tulsi ki uktiya UP TGT PGT HINDI 2022-23

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तुलसीदास की महत्वपूर्ण पंक्तियाँ

(१) सरल कवित कीरति विमल, सोइ आदरहिं सुजान।   

     सहज बैर बिसराय रिपु, जेहि सुनि करहि बखान ||

 

( २ ) नैहर जनम भरब बरू जाई,

       जियत न करब सवति सेवकाई ।

 

(३) “मैं सुकुमारि नाथ वन जोगू,

      तुमहि उचित तप मो कहं भोगू ।।

 

(४) निगम अगम, साहब सुगम राम सांचिली चाह ।

     अंबु असन असलोकियत सुलभ सबहि जग माह

 

(५) मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सूकर खेत ।

 

(६) श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ संजुत विरति विवेक

     नहि परिहरहिं विमोहबस कल्पहिं पंथ अनेक

      साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान

      भगति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं वेद पुराण ।

 

(७) सूधे मन, सूधे सचन, सूधी सब करतूति ।

      तुलसी सूधी सकल विधि, रघुवर प्रेम प्रसूति

 

(८) गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग

 

(९) सुधा सुरा सम साधु असाधू ।

     जनक एक जगजलधि अगाधू ।

(१०) सियाराममय सब जग जानी।

       करौं प्रनाम जोरि जुग पानी ।।

 

(११) गिरा अर्थ, जलबीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न    

       बंदौ सीताराम पद जिनहिं परम प्रिय खिन्न।

 

(१२) मातु पिता जग जाइ तज्यो,

       विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई।

 

(१३) तनु जन्यो कुटिल कीट ज्यों तज्यो माता पिता हू ।

 

(१४) कत बिधि सजी नारि जग माँही ।

       पराधीन सपनेहुँ सुख नाही ||

 

(१५) जनकसुता, जगजननि जानकी ।

       अतिसय प्रिय करुणानिधान की ।

 

(१६) आगि बड़वागि ते बड़ी है आगि पेट की’

 

(१७) जायो कुल मंगन बधावनो बजायो सुनि भयो परिताप पाप जननी जनक को ।

बारे तें ललात बिललात द्वारे द्वारे जानत हौं चारि फल चार चनक को ।

 

(१८) मुक्ति जन्म महि जानि, ज्ञान खानि, अध हानिकर।        

जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेई कस न ।।

 

(१९) गारी देत नीच हरिचंद दधीचि हू को

       आपने चना चबाइ हाथ चाटियत है।

 

(२०) मांगि के खैबौ मसीत के सोइबो,

       लैबो को एक न दैबो को दोऊ ।

 

(२१) कबहुक हौं यहि रहनि रहौंगे।

       परुष बचन अति दुसद्द स्रवन

       सुनि तेहि पावक न दहौंगे।

 

(२२) बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेदपथ लोग ।   

       चलहिं सदा पावहिं सुख नहिं भय सोक न रोग ।।

 

(२३) जासु बिलोकि अलौकिक शोभा

       सहज पुनीत मोर मन छोभा ।

 

(२४) नख शिख देखि राम के सोभा।

       समुझि पिता पन मन अति छोभा।।’

 

(२५) तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी ।

        दुहुँ संकोच सकुचति बर बरनी । ।

 

 

(२६) भरत महा महिमा जल रासी ।

        मुनिमति ठादि तीर अबला सी।

 

(२७) खेती न किसन को, भिखारी को न भीख,

      जीविकाविहीन लोग सिद्यमान सोच बस कहैं

 एक एकन सों- ‘कहाँ जाई का करी । (कवितावली से )

 

(२८) हिय निर्गुन, नयनन्हि सगुन, रसना राम सुजान

 

(२९) कबिहि अरथु आखरू बल साँचा ।

        अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा ।।

 

(३०) बंदौ गुरुपद पदुम परागा ।

       सुरुचि सुबास सरस अनुरागा

 

(३१) छंद सोरठा सुंदर दोहा ।

       सोई बहुरंग कमल कुल सोहा ।।

(३२) जाके प्रिय न राम बैदेही

(३३) विधिहु न नारि – हृदय गति जानि ।

(३४) वेद धर्म दूरि गए, भूमि चोर भूप गए।

(३५) नहि दरिद्र सम दुख जग माहिं ।

(३६) समरथ को नहि दोष गुसाई ।

(३७) बिनु सतसंग विवेक न होई ।

 

(३८) भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा ।

        उभय हरहिं भव संभव खेदा ।।

 

(३९) कवित्त विवेक एक नहिं मोरे ।

       सत्य कहुँ लिखि कागद कोरे ।

 

(४०) कामिहि नारि पियारि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम ।

(४९) सेवक सेव्य भाव बिन्दु भवं न तरिय उरगारि

 

(४२) उलट नाम जपत जग जाना,

       बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।

 

(४३) केशव कहि न जाई का कहिए ।

 

(४४) ढोल गँवार सूद्र पसु नारि ।

       सकल ताड़ना के अधिकारी ।

 

(४५) दैहिक दैविक भौतिक तापा,

        राम राज नहिं काहि ब्यापा ।

 

(४६) अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा,

        अकथ अगाध अनादि अनूपा

 

(४७) विनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति ।    

       बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीति ।।

 

(४८) अब लौ नसानी अब ना नसैहों ।

 

(४९) परहित सरिस धर्म नहि भाई ।

       पर पीड़ा सम नहिं अधिमाई ||

 

(५०) बिनु पद चलै सुनै बिनु काना

       कर बिनु करम करै बिधि नाना ।।

 

(५१) धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ ।

 

(५२) कहे बिनु रह्यो न परत, कहे राम! रस न रहत । “

(५३) राम को गुलाम, नाम रामबोला राख्यो राम

(५४) राम जपु, राम जपु, राम जपु बाबरे

 

(५५) ईसन के ईस, महाराजन के महाराज

       देवन के देव, देव! प्राान हु के प्रान हौ

(५६) राम को रूप निहारत जानकी, कंकन के नग की परछाहीं

(५८) अंतर जामिहु तें जड़ बाहर जामि है राम

 

(५९) रीझि आपनी बूझि पर, खीझ विचार विहीन

        ते उपदेश न मानहि, मोह महादधि मीन

 

(६०) कीरति भणिति भूति भलि सोई ।

       सुरसरि सम सब कहँ हित होई ||’

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